न्याय पालिका का दोहरा चरित्र तो न्याय में निष्पक्षता कहाँ

हर दशक में जातिगत जनगणना संवैधानिक मुद्दा-लौटनराम निषाद

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लखनऊ। जब जब ओबीसी आरक्षण की बात आती है तो सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट द्वारा टिप्पणी की जाती है कि जाति का पुष्ट वैज्ञानिक आँकड़ा नहीं है तो आप ओबीसी को इतना आरक्षण कैसे दे रहे हैं? एससी/एसटी को प्रमोशन में आरक्षण देना है तो आँकड़े लाने की बात की जाती है,पंचायत में आरक्षण देना है तो आँकड़े लाने की बात की जाती है । जब वैज्ञानिक आँकड़ा नहीं तो आरक्षण नहीं दिया जा सकता। भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौ. लौटनराम निषाद ने कहा कि जब महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में ओबीसी कोटा का मुद्दा उच्च न्यायालय में गया तो इसी तरह की टिप्पणी की गयी। छत्तीसगढ़, झारखण्ड में ओबीसी, एससी, एसटी आरक्षण कोटा विस्तारीकरण संशोधन विधेयक को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान भी उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार से आंकड़ों की मांग की गयी। उन्होंने कहा कि बिना जातिगत आंकड़े के उच्चतम न्यायालय व संविधान की व्यवस्था से परे जाते हुए सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत कोटा दे दिया गया। मंडल कमीशन के संदर्भ में इंदिरा साहनी वनाम भारत सरकार (ए आई आर 477एस सी ) के निर्णय में सुनवाई करते हुए 9 जजों की पूर्ण पीठ ने दो तिहाई बहुमत से आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत कोटा की मांग को असंवैधानिक करार देते हुए नकार दिया। लेकिन मंडल कमिशन की विरोधी भाजपा की सरकार ने ईडब्लूएस को 10 प्रतिशत कोटा दे दिया और 5 जजों की खंडपीठ ने 3:2 के बहुमत से वैध ठहरा दिया। उन्होंने कहा कि 5 जजों में 4 ब्राह्मण व एक सवर्ण बनिया जज थे, लेना भी उन्हीं को देना भी उन्हीं को तो रोकेगा कौन। उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के भेदभाव पूर्ण निर्णय पर न्याय पालिका की निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करना स्वाभाविक है, अब न्यायपालिका में निष्पक्षता दिखती ही नहीं है।

 

निषाद ने कहा कि ओबीसी, एससी, एसटी कोटा के मुद्दे पर न्यायालय द्वारा प्रामाणिक जातिगत आंकड़े की अनुपलब्धता पर सवाल खड़ा किया जाता है तो केन्द्र सरकार को संविधान सम्मत जातिगत आंकड़ा इकट्ठा करने का निर्देश क्यों नहीं दिया जाता। जब कोई राज्य सरकार जातिगत जनगणना कराने का प्रयास करती है तो न्यायालय दखलअंदाजी क्यों करता है? बिहार में जातिगत जनगणना पर रोक सवर्ण न्यायाधीशों के पक्षपात पूर्ण नजरिये को प्रमाणित करता है। उन्होंने कहा कि जातिगत जनगणना संवैधानिक मुद्दा है। संविधान की 7वीं अनुसूची के अनुच्छेद -246 में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है कि केन्द्र सरकार को हर दशक में जातिगत जनगणना कराना चाहिए। उन्होंने कहा कि कितना आश्चर्य जनक है कि हर दशक में एससी, एसटी, धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के आंकड़े घोषित किये जाते हैं, सिर्फ ओबीसी का आंकड़ा घोषित करने में राष्ट्रीय आपदा आ जाती है।

 

निषाद ने बताया कि ‘Persuit Of Law And Order’ किताब में कर्नाटक के पूर्व पुलिस महानिदेशक ए पी दुराई ने लिखा है कि जब लालू प्रसाद यादव की गिरफ़्तारी के लिए सेना बुलाने की जाँच के सिलसिले में पटना आए तो पाया कि पटना हाईकोर्ट के अगड़ी जातियों के जज ही सीबीआई को लालू प्रसाद यादव के खिलाफ एफ आई आर को डिक्टेट करवा रहे थे।अब जो जज खुद ही एफ आई आर डिक्टेट करवा रहे थे वो न्याय भला क्या करेंगे।निषाद ने कहा कि जाति जनगणना पर पटना हाईकोर्ट के फ़ैसले को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है।ऐसा लगता है याचिका दायर होने से पहले ही फ़ैसला लिख लिया गया था।आधार कार्ड के नाम पर ऊँगली से लेकर आँख की पुतली तक का स्कैनिंग करने से निजता का हनन नहीं होता है,

 

मगर जाति बता देने से निजता का हनन हो जाता है, उच्च न्यायालय का कमाल का फ़ैसला है।याचिका कर्ताओं को जातिगत जनगणना पर 500 करोड़ के खर्च की चिंता है पर विजय माल्या, मेहुल चौकसी, ललित मोदी, निशान मोदी, नीरव मोदी आदि 29 पूंजीपति जो भारतीय बैंकों का 10 ट्रीलियन लूट कर विदेश भाग गए,उसकी चिंता नहीं है।

 

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