सआदत हसन मंटो की यौमे पैदाइश पर नाइश हसन का सोशल मीडिया पर पैगाम

एक स्त्री की नज़र से मंटो को देखती हूं,सच कहने में मंटो ने कभी गुरेज़ न किया, कह सकती हूं हमारा फेमिनिस्ट मंटो। उस अहम अफसानानिगार को इस लेख के ज़रिए खिराजे अक़ीदत पेश करती हूं-नाइश हसन

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लेखक : नाइश हसन

लखनऊ :अफसाना निगारी की बात हो और मंटो का जिक्र हो तो पहला ख्याल लोगों के जेहन में आता है कि वो गोया एक अश्लील इंसान था।

ऐसा कहने वालों की तादाद ख़ासी ज्यादा है।

सफेदपोशी में खुद को छुपाए हमारा मुआशरा (समाज) मंटो को तमाम ऐसे ही लक़ब से नवाज़ता रहा, लेकिन काबिल-ए-ग़ौर बात ये है कि इंसानी नफ़सियात की शायद की कोई परत हो जिसे मंटो ने न उकेरा हो। और अपनी हक़पसंद कलम से दर्ज न किया हो। ऐसी हाय तौबा के बावजूद वो शख्स वही लिखता रहा जो उसकी कलम उसे लिखने का हुक्म देती रही, उसने लिखने में कभी अगर-मगर नहीं किया। सच को सच कहने में मंटो के बराबर खड़ा कोई दूसरा नजर नहीं आता। यही वजह है कि अपनी मौत के 68 साल बाद भी वो अपनी मौजूदगी कुछ इस तरह दर्ज किए हुए है कि मानो आज भी जिंदा और ताबिंदा है। उनके लव्ज मानो आज ही तख़्लीक किए गए हों।

औरत की निगाह से देखूं तो कह सकती हूं हमारा फेमिनिस्ट मंटो, हमारा नारीवादी मंटो, बेबाकी से स्त्री प्रश्न उठा कर मुआशरे में आग लगा देने वाला मंटो, समाज की झूठी अस्मत को तार-तार कर के बहुत खुश नजर आने वाला मंटो, कालीन के नीचे दबा दिए गए तमाम सच को बेपर्दा कर डालने वाला मंटो। आज भी वो हमारे पीछे खड़े होकर हमारे कंधे पर अपनी हथेली से थपकी दे रहा है और हमें आगाह कर रहा है।

मंटो ने मर्दो की फितरत पर बड़ी बेबाकी से उंगली उठाई, उन्होंने उसे बैलेंस करने की कोशिश कभी नही की। उन्हें इस बात का डर कभी नहीं रहा कि जिस तरह के सवाल वो उठा रहे हैं तो मर्द हजरात उन्हें हाशिए पर डाल सकते हैं। उन्होने बड़ी साफगोई से एक जुमला कहा- “हम औरत उसी को समझते हैं जो हमारे घर की हो, बाकी हमारे लिए कोई औरत नहीं होती, गोश्त की दुकान होती है, और हम उस दुकान के बाहर खड़े कुत्तों की तरह होते हैं, जिनकी हवसज़दह नज़र हमेशा गोश्त पर टिकी होती है।”

इस तरक्कीपसंद दौर की औरत जब मंटो की ये बात याद करती है तो उसे लगता है गोया ये आज की ही तो बात है। उसकी जिंदगी की हकीकत ही तो है। इतनी दहाइयां बीत जाने के बाद भी वो हैरान सी खड़ी इस सच पर आंखे फाड़े देखती रहती है। सच! उसे गोश्त की दुकान के बाहर खड़े कुत्तों का तजर्बा तो आज भी है।

इस मॉडर्न कहे जाने वाले दौर में भी विवाह संस्था पर गौर करें तो उसने औरत को घर के भीतर ढकेलने की पूरी कोशिश की है। उसे सिर्फ रसोई और बिस्तर के गणित में उल्झा कर रखा। उसे सिर्फ थाली-रकाबी के सपनों में कैद रखा, इससे इतर औरतें अगर नौकरी करना चाहें तो विवाह संस्था ने उसके पैर पीछे खींचने की हर मुमकिन कोशिश की। यही कारण है कि आज भी तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए, औरतें घर और बाहर के दोहरे नहीं तेहरे बोझ से दबी हैं। सिर्फ 37 प्रतिशत औरतें ही नौकरियों तक पहुंच बना पाई हैं। उसे पित्रसत्ता अच्छी और बुरी औरत के खांचे में ढाल कर घर की ओर घसीट रही है। इसी को मंटो ने कहा कि हमारा “मुआशरा औरत को कोठा चलाने की इजाज़त तो दे सकता है लेकिन तांगा चलाने की नहीं।”

गोया हर वो काम जिससे औरत ताकतवर बने उसे करने से रोकता है समाज। इसे अपनी पारखी नजर से देखने वाले मंटो आज कितने प्रासंगिक से नजर आते हैं, इसे बखूबी समझा जा सकता है। या यूं कहूं कि इक्कीसवीं सदी की औरत इस बात को बखूबी जानती है कि किस तरह आज का मर्दाना समाज भी अपने बनाए उसूलों में औरत को जकड़ने की फिराक में रहता है। तमाम उसूलों के जाल में कैद कर औरत को अपने जिंसी मफाद के इर्द-गिर्द ही तो देखना चाहता है वो।

हालिया सामने आई राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के खिलाफ 28,811 शिकायतें आई उनमें 55 प्रतिशत उत्तर प्रदेश से मिलीं। इनमें भी औरत के मान सम्मान पर हमले की शिकायतें सबसे ज्यादा थीं। आंकड़े बताते हैं कि दहेज के लिए सताई जाने वाली औरतों की शिकायतें 4,797, वहीं राह चलती लड़की से छेड़खानी की शिकायतें 2,349, पुलिस की महिलाओं के केस में उदासीनता की शिकायतें 1,618 और बलात्कार की कोशिश के मामले 1,537, लड़की का पीछा करने के मामले 472, साइबर अपराध के मामले 605 दर्ज किए गए।

ये आंकड़े जाहिर करते हैं कि तरक्कीपसंद कहा जाने वाला समाज आज भी औरत के लिए कितना जालिम है। उसे जीने के हक से भी महरूम रखना चाहता है। मंटो कहते थे कि “बेटी का पहला हक जो हम खा जाते हैं वो उसके पैदा होने की खुशी है।” इस बात को आज भी घर-घर महसूस किया जा सकता है। सरकार को इस बात का लगातार विज्ञापन करना पड़ता है कि बेटी-बेटा एक समान हैं। बेटी के पैदा होने पर सरकार कुछ स्कीम चलाकर पैसे भी देती है कि आप खुद अपनी लड़की की अहमियत समझें।

मंटो की बात समाज को तीखी लगती है और तीर की मानिंद कलेजे में सीधे चुभ जाती है। जब वो गरज कर कहते हैं कि “बेटी को कोई पैदा नहीं करना चाहता, मगर बिस्तर पर सब मर्द औरत चाहते हैं।” उनकी इन बातों से उठे बवाल से वो बिना घबराए आगे कहते हैं कि “मेरे अल्फाज गंदे नहीं, मेरे अल्फाज सिर्फ नंगे है। नंगापन अगर मुआशरे में है तो मैं उसे कपड़े नहीं पहना सकता, कपड़ा पहनाना दर्जी का काम है मेरा नहीं ।”

वो कहते हैं “जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ़ नहीं तो मेरे अफ़साने पढिए और अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि जमाना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है।” वो कहते हैं “मेरी तहरीर में कोई नक़्श नहीं है, जिस नक़्श को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल वो मौजूदा निज़ाम का नक़्श है।”

आज जब हम महिलाओं को आत्महत्या करते देखते है, उन्हें यौन हिंसा से न्याय नहीं मिलता, उनका बलात्कार होते देखते हैं, और देखते है कि रसूखदार बच निकले तो मंटो आज भी अपनी कहानियां लिए हमारे सामने जिंदा खड़े नज़र आते हैं।

अभी पिछले दिनों भारत सहित कई देशों में बुर्के को लेकर बड़ी बहस जारी रही। देखने में यह भी आया कि भारत में तो औरतों से कहीं ज्यादा मर्द बुर्के के पक्ष में लामबंद रहे। उस बहस को देखकर भी बेसाख्ता मंटो याद आ गए। उन्होने कहा था “आप दुनिया की तमाम औरतों को बुर्का पहना दें फिर भी हिसाब आप को अपनी आंखों का देना होगा।”

अपने इन बेबाक कलामों के लिए मंटो पर तमाम मुकद्दमात भी चले, उन्हें अपना पक्ष कई बार रखना पड़ा, ऐसा गुलाम मुल्क में भी हुआ और आजाद होने के बाद भी । तब उन पर 6-7 मुकदमें चले, आज वो होते तो उन पर यकीनी तौर पर 50-60 मुकदमें चल गए होते। या कोई सरफिरा उन पर हमला कर देता या मौजूदा सरकार भारत की हो या पाकिस्तान की उन्हें नजरबंद कर देती। लेकिन दिनो-दिन मंटो के उठाए सवाल मानीखेज़ होते जा रहे हैं, उनकी प्रासंगिकता बढती जा रही है। वो जो कह गए आज की लड़कियां उसे जी रही हैं, या कहा जाए भुगत रही है। जो सवाल मंटों ने औरत के बारे में उठाए उन पर आज भी बहस जारी है, आज की औरत उससे हर रोज़ टकरा रही है।

मंटो के अफसानों में तमाम हाशिए के लोग शामिल हैं जिन्हें आज तक कोई इज़्ज़त नहीं मिली। उन्ही में वैश्याएं, घरेलू और कामकाजी औरतें भी शामिल हैं। उन्होने हफ़्तों, महीनों, सालों हीरा मंडी में घूम टहल कर गुजारे। उन्होने इस समाज को ये अहसास कराया कि वैश्याएं भी इंसान हैं। वो समाज की हिप्पोक्रेसी से पर्दा उठाते रहे। उनकी कहानी “खोल दो” का अंत जैसे चेहरा विहीन भीड़ के वहशी चरित्र का प्रमाण है।

भारतीय साहित्य में नारीवाद की शुरूआत करने वाले लेखकों में मंटों का भी शुमार है। उन्होने अपने अफसानों के जरिए औरतों की जिंदगी के तमाम पहलुओं की बड़ी बारीक पड़ताल की है, उनके अफ़साने पित्रसत्ता पर सवाल उठाते हैं। सभ्य कहे जाने वाले समाज को आइना दिखाते है। उनकी कहानी “शरीफन” “ठंडा गोश्त”
“खोल दो” उन सभी पहलुओं को सामने लाती हैं जिसमें तक़्सीम का दर्द तो है ही लेकिन तक़्सीम के दौरान भी औरतों के साथ क्या हो रहा था उस असलियत को भी सामने रखती है।

इसके अलावा अगर हम जिक्र करें उनकी कहानी “औलाद” का तो ऐसा महसूस होता है कि समाज कैसे अपने मुताबिक औरतों को गढता है। जिसे सिमोन कहती है औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है। ऐसी ही औरत पित्रसत्ता अपने लिए गढती है इस कहानी में।

मंटो को फेमिनिस्ट कहना चाहिए। उनकी जिंदगी में औरतों का बड़ा रोल था। उनकी अम्मी उनकी बहन नासिरा इकबाल जिनसे मंटो बहुत प्रभावित थे। उनकी तीन बेटियां, बीवी सफ़िया उन सब से वो बहुत घिरे हुए थे, वो एक बहुत वफ़ादार शौहर भी थे। जेहन से बहुत मॉर्डन थे। इसकी एक मिसाल यहां देना लाजमी हो जाता है। आज के जमाने के शौहर भी अपनी बीवियों की साड़ियां प्रेस नहीं करते है, स्वेटर नहीं बुनते, अचार नहीं डालते हैं, अपनी बेगम की आइब्रो नहीं बनाते, मंटो ये सब किया करते थे उन्हें ऐसा करने में कभी वो एहसास न हुआ जो आम मर्दो को होता है। वो अपने किरदार के खुदा थे, मुख्तार थे।

मंटो ने जो बात तब कही थी वो आज भी हमारे समाज पर सवाल खड़े करती है। आप उन पर इल्ज़ामतराशी करके उन्हें बाहर कर सकते हैं, लेकिन उनके उठाए सवाल आप की आंखों में चुभते रहेंगे। उनकी कहानियां हमारे मुआशरे की परतें खोलने का काम करती हैं, पोस्टमार्टम करती है।

मंटो पर एक फिल्म 2018 में नंदिता दास ने बनाई थी। जिसमें उन्होने मंटो की जिंदगी के स्त्री पक्ष को बड़ी खूसबूरती से पेश किया था। औरतों की खुद की या उनके पक्ष की उभरती आवाज से यह पित्रसत्तात्मक समाज इस कदर दहशत खाता है कि उस फिल्म के रिलीज होने से पहले ही मानो आग भड़क उठी, और पाकिस्तान में उस फिल्म को बैन कर दिया गया। लेकिन जुनूनी लोग सड़कों पर उतर आए, एहतेजाज जोरो का हुआ। वही बात है जिसे दुश्यंत कुमार अपने अंदाज में कहते हैं कि अजब है सच को सच कहते नहीं वो कुरानो उपनिषद खोल हुए है…..। मज़हब की आड़ में तकरार तो हो सकती है, ताकतवर सच को जमीदोज़ तो कर सकता है लेकिन सच जमीन की सात तहों में भी छुपा हो फिर भी एक रोज़ बाहर निकल ही आता है।

अपने वक्त से बहुत आगे का अफसानानिगार जिसने इंसानी जज्बात को अपने अफसानों का मौजूं बनाया। उस समाजी रवैयों की अक्कासी की मंटो ने जिसे समाज ने हमेशा छुपाने की कोशिश की। हम सब ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार अदीबों से खौफ़ खाती है। और फिर एक ऐसा अदीब जो ऐसे सवाल उठा रहा हो जिसपर बोलने की कभी हिम्मत न की गई हो, तो हाय तौबा मचना तो लाजमी है ही। तो ऐसे नारीवादी अफसाना निगार को हम खिराजे अकीदत पेश करते हैं। मंटो का जिस्म जरूर खामोश हो गया है लेकिन मंटो की मंटोइयत तो अभी भी समाज का पीछा कर रही है। उसे आइना दिखा रही है।

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